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ग़ज़ल
रख़नों से दीवार-ए-चमन के मुँह को ले है छुपा या'नी
इन सूराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
ये अदा देख के कितनों का हुआ काम तमाम
नीमचा कल जो टुक उस अरबदा-जू का निकला
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
ब-रंग-ए-बू-ए-गुल उस बाग़ के हम आश्ना होते
कि हमराह-ए-सबा टुक सैर करते फिर हवा होते