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ग़ज़ल
उलूम चौदह मक़ूला दस और जिहात सित्ता बनाए उस ने
उमूर-ए-दुनिया को ताकि पहुंचाएँ ख़ूब सा इंसिराम तीसों
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
क्या तुझे मालूम है दैर-ओ-हरम की एक राह
बुत-परस्ती उस जगह और इस जगह है यक उमूर
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
उधर झुकाओ तो होता है जा के बरसों में
है जिन उमूर में तुम को अभी से दिलचस्पी
सय्यद ज़ियाउद्दीन नईम
ग़ज़ल
बिना मंज़िल के रस्तों का सफ़र अपना रहा है
मिरे दिल में वो यक-तरफ़ा मोहब्बत ला रहा है