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ग़ज़ल
फ़े पे इक नुक़्ता है और क़ाफ़ पे हैं नुक़्ता दो
काफ़ भी ख़ाली है और लाम भी ख़ाली, ये ले
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
जो मैं जाता हूँ उठ कर फ़ी-अमानिल्लाह कहता हूँ
तिरे मुँह से न ओ काफ़िर कभी निकला ख़ुदा-हाफ़िज़