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ग़ज़ल
एक ये घर जिस घर में मेरा साज़-ओ-सामाँ रहता है
एक वो घर जिस घर में मेरी बूढ़ी नानी रहती थीं
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
इसी कश्मकश में गुज़रीं मिरी ज़िंदगी की रातें
कभी सोज़-ओ-साज़-ए-'रूमी' कभी पेच-ओ-ताब-ए-'राज़ी'
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
दीदा ओ दिल को सँभालो कि सर-ए-शाम-ए-फ़िराक़
साज़-ओ-सामान बहम पहुँचा है रुस्वाई का
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
वो शब-ए-दर्द-ओ-सोज़-ओ-ग़म कहते हैं ज़िंदगी जिसे
उस की सहर है तू कि मैं उस की अज़ाँ है तू कि मैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
हल्क़ा-ए-सूफ़ी में ज़िक्र बे-नम ओ बे-सोज़-ओ-साज़
मैं भी रहा तिश्ना-काम तू भी रहा तिश्ना-काम
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
साज़-ओ-सामाँ थे ज़फ़र के पर वो शब में लुट गए
ख़ाक-ओ-ख़ूँ के दरमियाँ कुछ ख़्वाब कुछ कम-ख़्वाब थे
हसन नईम
ग़ज़ल
ये सोज़-ओ-साज़-ए-निहाँ था वो सोज़-ओ-साज़-ए-अयाँ
विसाल-ओ-हिज्र में बस फ़र्क़ था तो इतना था