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ग़ज़ल
बे-हिसी को तोड़ दे अब तो पिघल ऐ संग-दिल
कम से कम तू 'संत' की आँखों से छलका नीर देख
संतोष पुरस्वानी संत
ग़ज़ल
वो जिस धरती पे सूफ़ी-‘संत’ हर-दम साथ रहते हों
मोहब्बत का वहाँ से ख़ात्मा हो ही नहीं सकता
संतोष पुरस्वानी संत
ग़ज़ल
इस शहर-ए-दिल में कोई ख़ुशी आए क्या मजाल
करती हैं राज 'संत' के दिल पर उदासियाँ
संतोष पुरस्वानी संत
ग़ज़ल
सर में जब आकाश समाए तब ही संत कोई कहलाए
जिस के मन में बहे गंगा वो जलती रेत पे सोता है
मनमोहन तल्ख़
ग़ज़ल
सफ़ा-ए-क़ल्ब ही से ज़ेब-ए-जामा-ज़ेबी है
कहाँ से चुस्त क़बा आ गई क़बा में साँट