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ग़ज़ल
मिरे मास्टर न होते जो उलूम-ओ-फ़न में दाना
कभी मौला-बख़्श-साहब का न मैं शिकार होता
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
मिरे पाँव में पायल की वही झंकार ज़िंदा है
मोहब्बत की कहानी में मिरा किरदार ज़िंदा है
इरुम ज़ेहरा
ग़ज़ल
मिरा क़िस्सा भी आएगा वफ़ा की दास्तानों में
मुझे मत ढूँडते रहना जफ़ा की दास्तानों में
इरुम ज़ेहरा
ग़ज़ल
कितनी दूर से चलते चलते ख़्वाब-नगर तक आई हूँ
पाँव में मैं छाले सह कर अपने घर तक आई हूँ
इरुम ज़ेहरा
ग़ज़ल
नहीं अजाइब कुछ आँख ही में रूतूबतें तीन सात पर्दे
ओक़ूल दस मुद्रिकात दस हैं सो करते रहते हैं काम तीसों
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
फ़लक पे चाँद धरती पर नज़ारे रक़्स करते हैं
मैं शब को बाम पर आऊँ सितारे रक़्स करते हैं
इरुम ज़ेहरा
ग़ज़ल
बशर जो चाहे कि समझे उन्हें सो क्या इम्काँ
है याँ फ़रिश्तों की आजिज़ अक़ूल और इफ़हाम
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
ग़र्ब है मशरिक़-ए-ख़ुर्शेद-ए-उलूम-ओ-हिक्मत
अब ये लाज़िम है कि लौ अपनी उधर को ही लगाओ