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ग़ज़ल
ये वक़्त आने पे अपनी औलाद अपने अज्दाद बेच देगी
जो फ़ौज दुश्मन को अपना सालार गिरवी रख कर पलट रही है
तहज़ीब हाफ़ी
ग़ज़ल
मेरे अज्दाद ने सौंपी थी जो मुझ को 'रज़्मी'
नस्ल-ए-नौ को वो क़बा दे के चला जाऊँगा
मुज़फ़्फ़र रज़्मी
ग़ज़ल
यूँ तमाशा न करो तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ कर लो
इतनी प्यारी अगर अज्दाद की इज़्ज़त है तुम्हें
महवर सिरसिवी
ग़ज़ल
हम इतने फ़ासले पर आ गए हैं अहद-ए-माज़ी से
ख़बर ये भी नहीं अज्दाद का नाम-ओ-निशाँ क्या था