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ग़ज़ल
अम्न-ओ-उख़ुव्वत अपना मस्लक मेह्र-ओ-वफ़ा है अपना दीन
अपना तो ये काम नहीं है ज़ुल्म-ओ-इस्तिब्दाद करें
अरमान अकबराबादी
ग़ज़ल
गिरा दे क़स्र-ए-इस्तिब्दाद जो इक नारा-ए-हू से
नज़र ऐसा कोई भी आज दीवाना नहीं आता
रशीद शाहजहाँपुरी
ग़ज़ल
सर-कशी में जुर्म-ओ-इस्तिब्दाद में मशग़ूल हैं
दनदनाते मनचलों को इन रज़ालों को भी रोक
ऐश शुजाबादी
ग़ज़ल
ग़र्क़ कर दो ज़ालिमों के दौर-ए-इस्तिब्दाद को
अर्क़-ए-पेशानी से बहर-ए-बे-कराँ पैदा करो
नजीबा बादी
ग़ज़ल
ज़ुल्म-ओ-इस्तिब्दाद का इक सिलसिला है उस के साथ
ये समझता है वो शायद कि ख़ुदा कोई नहीं
अबरार नग़मी
ग़ज़ल
दौर-ए-इस्तिब्दाद में ऐ दिल फ़ुग़ाँ बे-सूद है
गर्मी-ए-फ़रियाद से पत्थर पिघल जाएँगे क्या
जली अमरोहवी
ग़ज़ल
ज़ुल्म-ओ-इस्तिब्दाद के इस दौर-ए-पुर-आशोब में
राहतों आसाइशों से बे-ख़बर है ज़िंदगी
आबिद अलीम सहव
ग़ज़ल
ग़र्क़ कर दो ज़ालिमों को दौर-ए-इस्तिब्दाद को
अर्क़-ए-पेशानी से बहर-ए-बे-कराँ पैदा करो
नजीबा बादी
ग़ज़ल
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था