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ग़ज़ल
आज से पहले तिरे मस्तों की ये ख़्वारी न थी
मय बड़ी इफ़रात से थी फिर भी सरशारी न थी
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
वो माया-ए-जाँ तो कहीं पैदा नहीं जों कीमिया
मैं शौक़ की इफ़रात से बेताब हूँ सीमाब सा
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
इफ़रात-ए-शौक़ में तो रूयत रही न मुतलक़
कहते हैं मेरे मुँह पर अब शैख़-ओ-शाब क्या क्या
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
इफ़रात-ए-माल-ओ-ज़र तो है 'क़ासिद' वबाल-ए-जाँ
हाथ आए मुझ को हस्ब-ए-ज़रूरत ख़ुदा करे
रियाज़ क़ासिद
ग़ज़ल
तुम्हारे हुस्न से सोने के हो गए हैं हुरूफ़
तो शाइ'रों में भी इफ़रात-ए-ज़र को देखते हैं
सफ़वत अली सफ़वत
ग़ज़ल
नेज़ा-ओ-शमशीर-ओ-ख़ंजर की अगर इफ़रात है
ख़ून की भी मेरी रग रग में फ़रावानी रहे