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ग़ज़ल
क्या कहें उल्फ़त में राज़-ए-बे-हिसी क्यूँकर खुला
हर नज़र को तेरी दर्द-अफ़ज़ा समझ बैठे थे हम
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
वाहिमा ख़ल्लाक़ आज़ादी का हुस्न-अफ़ज़ा सुरूर
हर फ़रेब-ए-रंग का पहले गुलिस्ताँ नाम था
आसी उल्दनी
ग़ज़ल
वहशत-अफ़्ज़ा गिर्या-हा मौक़ूफ़-ए-फ़स्ल-ए-गुल 'असद'
चश्म-ए-दरिया-रेज़ है मीज़ाब-ए-सरकार-ए-चमन
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हुआ हूँ इस क़दर अफ़्सुर्दा रंग-ए-बाग़-ए-हस्ती से
हवाएँ फ़स्ल-ए-गुल की भी नशात-अफ़्ज़ा नहीं होतीं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
अजमल सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
गर ग़ैर से कुछ तुम को मोहब्बत नहीं होती
तो हम को ये रश्क-ए-क़लक़-अफ़्ज़ा नहीं होता
निज़ाम रामपुरी
ग़ज़ल
सुरूर-अफ़्ज़ा हुई आख़िर शराब आहिस्ता आहिस्ता
हुआ वो बज़्म-ए-मय में बे-हिजाब आहिस्ता आहिस्ता
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
देखा था जो निहाल-ए-तमन्ना के साए में
ऐ बे-दिली वो दिल दिल-ए-अफ़ज़ा कहाँ से लाएँ
शानुल हक़ हक़्क़ी
ग़ज़ल
है तिरे हुस्न का नज़्ज़ारा वो हैरत-अफ़ज़ा
देख ले चश्म-ए-तसव्वुर भी तो हैराँ हो जाए
अहसन मारहरवी
ग़ज़ल
शराब-ए-अर्ग़वाँ को शैख़ पहले तो बुरा समझे
मगर फिर रफ़्ता रफ़्ता सेहत-अफ़ज़ा शोरबा समझे