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ग़ज़ल
हम अपना नफ़्स-ए-अम्मारा समझने से रहे क़ासिर
किताब-ए-नफ़्स पढ़ कर आगे अफ़लातून से निकले
शहनवाज़ नूर
ग़ज़ल
जब अफ़लातून का अंधा बरगद फैला तो ग़लतान हुआ
सब तन को जवानी काट गई तो ख़ुश्क लबों पर हिश्त रखी
यासिर इक़बाल
ग़ज़ल
ज़मीर-ए-पाक ओ निगाह-ए-बुलंद ओ मस्ती-ए-शौक़
न माल-ओ-दौलत-ए-क़ारूँ न फ़िक्र-ए-अफ़लातूँ
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
दुख़्तर-ए-रज़ मिस्ल-ए-अफ़्लातूँ है जब तक ख़ुम में है
नश्शे में अपने से बाहर हों ये दानाई नहीं
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
इश्क़ कूँ मजनूँ के अफ़्लातूँ समझ सकता नहीं
गो कि समझावे पे समझेगा नहीं आक़िल है ये
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
मुझे इन कोहना अफ़्लाकों में रहना ख़ुश नहीं आता
बनाया अपने दिल का हम नीं और ही एक नौ-महला