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ग़ज़ल
गरचे हैं अक़्वाल-ए-ज़र्रीं से सजे दीवार-ओ-दर
हर नसीहत लौह-ए-दिल पर बे-असर पाते हैं हम
ख्वाजा मंज़र हसन मंज़र
ग़ज़ल
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ख़िरद-मंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है
कि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इंतिहा क्या है