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ग़ज़ल
कोई अलिफ़-लैला का ख़ित्ता दश्तों वाला ग़ारों वाला
शहर कोई बग़दाद-नुमा है कूचा है ‘अत्तारों वाला
इक़तिदार जावेद
ग़ज़ल
हमारा अहद भी लिक्खे अलिफ़-लैला के जैसा कुछ
बदलना चाहिए अब रंग कुछ क़िस्सा-कहानी का
ख़ुर्शीद तलब
ग़ज़ल
अल्फ़-लैला तिरी अब तक यूँही जारी सारी
हम सुनाते हैं तिरे सब को फ़साने क्या क्या
मोहम्मद हनीफ़ कातिब
ग़ज़ल
न रखता मैं यहाँ गर उल्फ़त-ए-लैला निगाहों कूँ
तो मजनूँ की तरह आलम में अफ़्साने हुए होते