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ग़ज़ल
अभी और मातम-ए-रंग-ओ-बू कि चमन को है तलब-ए-नुमू
तेरे अश्क हों कि मिरा लहू ये अमीं हैं फ़स्ल-ए-बहार के
सुरूर बाराबंकवी
ग़ज़ल
देख कोह-ए-ना-रसा बन कर भरम रक्खा तिरा
मैं कि था इक ज़र्रा-ए-बे-ताब ऐ सहरा तिरा
अमीन राहत चुग़ताई
ग़ज़ल
हमें भी क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन से निस्बत है
फ़क़ीह-ए-शहर से कह दो नज़र मिला के चले