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ग़ज़ल
मैं वो आदम-गज़ीदा हूँ जो तन्हाई के सहरा में
ख़ुद अपनी चाप सुन कर लर्ज़ा-बर-अंदाम हो जाए
शकेब जलाली
ग़ज़ल
बे-ख़तर हैं सुस्ती-ए-अंदाम से नाज़ुक-मिज़ाज
जुस्तुजू-ए-बादा में शीशों की अंगड़ाई नहीं
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
दिल में ख़ुश आई हैं सहरा की बबूलें पुर-ख़ार
अब किसी सर्व-ए-गुल-अंदाम से कुछ काम नहीं
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
दामन को बचा भी लें शायद सहरा के नुकीले काँटों से
गुलशन के मगर गुल-हा-ए-शरर-अंदाम से बचना मुश्किल है
आनंद नारायण मुल्ला
ग़ज़ल
अपनी इस आज की ताक़त पे न यूँ इतराओ
मेहर उट्ठा था हर इक सुब्ह-ए-शब-अंजाम के साथ
आनंद नारायण मुल्ला
ग़ज़ल
ख़ुश-रंग-ओ-ख़ुश-निगाह ख़ुश-अंदाम ख़ूब-रू
फैले हुए हैं शहर में क़ातिल जगह जगह