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ग़ज़ल
शैख़ जो है मस्जिद में नंगा रात को था मय-ख़ाने में
जुब्बा ख़िर्क़ा कुर्ता टोपी मस्ती में इनआ'म किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
इस से बढ़ कर कोई इनआम-ए-हुनर क्या है 'फ़राज़'
अपने ही अहद में इक शख़्स फ़साना बन जाए
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
हाए जवानी क्या क्या कहिए शोर सरों में रखते थे
अब क्या है वो अहद गया वो मौसम वो हंगाम गया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मिलता है कभी बोसा ने गाली ही पाते हैं
मुद्दत हुई कुछ हम को इनआम नहीं होता
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
इनआ'म का उक़्बा के तो क्या पूछना लेकिन
दुनिया में भी ईमाँ का सिला मेरे लिए है