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ग़ज़ल
घर की बुनियादें दीवारें बाम-ओ-दर थे बाबू जी
सब को बाँध के रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबू जी
आलोक श्रीवास्तव
ग़ज़ल
बाबू-जी गुज़रे आपस में सब चीज़ें तक़्सीम हुईं तब
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से आई अम्माँ
आलोक श्रीवास्तव
ग़ज़ल
प्यासे होंटों से जब कोई झील न बोली बाबू-जी
हम ने अपने ही आँसू से आँख भिगो ली बाबू-जी
कुंवर बेचैन
ग़ज़ल
रंज ओ ख़ुशी की सब में तक़्सीम है मुनासिब
बाबू जो है तो फिर क्या चंगेज़ है तो फिर क्या
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
भूकी नंगी जनता कब तक पेट का ढोल बजाएगी
बोलो बाबू कुछ तो बोलो क्या रक्खा है नारों में
फ़िरोज़ नातिक़ ख़ुसरो
ग़ज़ल
घर की खपड़ैलों के अंदर टप-टप मेघ बरसते थे
अम्मा बाबू टाँकते रहते टीन में साबुन की टिक्की
शारिक़ क़मर
ग़ज़ल
बहुत लाचार होते हैं दयार-ए-'इश्क़ में वो भी
जो दुनियावी रवाबित में बड़े बाबू निकलते हैं
यासिर गुमान
ग़ज़ल
बाबू-जी ने बरसों पहले घर का बटवारा किया
माँ के और उन के सिवा मैं ने लिया कुछ भी नहीं