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ग़ज़ल
ऐ शम्अ एक चोर है बादी ये बाद-ए-सुब्ह
मारे है कोई दम में तिरे ताज-ए-ज़र पे हाथ
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
आमिर अमीर
ग़ज़ल
ये क्यूँ बाक़ी रहे आतिश-ज़नो ये भी जला डालो
कि सब बे-घर हों और मेरा हो घर अच्छा नहीं लगता