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ग़ज़ल
मुन्कशिफ़ मुझ पर हुआ 'जामी' वो रहबर था मिरा
जिस हक़ीक़त-आश्ना को बाज़ीगर समझा था मैं
सय्यद मेराज जामी
ग़ज़ल
हाँ हाँ वो बाज़ीगर सही मिट्टी का इक पैकर सही
तेरी नज़र से हम-नशीं कैसे उसे देखा करूँ
वारिस किरमानी
ग़ज़ल
वो तो बाज़ीगर हैं उन का मक़्सद खेल दिखाना है
तुम तो फ़रज़ाने हो साहिब कब तक कर्तब देखोगे
ग़ज़नफ़र
ग़ज़ल
आस्तीनों में छुपा कर साँप भी लाए थे लोग
शहर की इस भीड़ में कुछ लोग बाज़ीगर भी थे
पी पी श्रीवास्तव रिंद
ग़ज़ल
मुझे 'अनवर' सताते हो घुमाते हो नचाते हो
बना हूँ अब मैं बाज़ीगर कहो इस में बुरा क्या है
अनवर शैख़
ग़ज़ल
लिए हम काँच का दिल बर-सर-ए-बाज़ार बैठे हैं
थे पत्थर जिनकी झोली ख़ुश वही तो बाज़ीगर लौटे
मुमताज़ मालिक
ग़ज़ल
पल भर में उल्फ़तें हैं तो पल भर में नफ़रतें
कैसे निभाएँ हुस्न की बाज़ीगरी से हम