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ग़ज़ल
जब सब के लब सिल जाएँगे हाथों से क़लम छिन जाएँगे
बातिल से लोहा लेने का एलान करेंगी ज़ंजीरें
हफ़ीज़ मेरठी
ग़ज़ल
मैं जभी तक था कि तेरी जल्वा-पैराई न थी
जो नुमूद-ए-हक़ से मिट जाता है वो बातिल हूँ मैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा
यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे
जौन एलिया
ग़ज़ल
हो नक़्श अगर बातिल तकरार से क्या हासिल
क्या तुझ को ख़ुश आती है आदम की ये अर्ज़ानी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मोहब्बत में मज़ा है छेड़ का लेकिन मज़े की हो
हज़ारों लुत्फ़ हर इक शिकवा-ए-बातिल में रहते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
हरीफ़-ए-जोशिश-ए-दरिया नहीं खुद्दारी-ए-साहिल
जहाँ साक़ी हो तू बातिल है दा'वा होशियारी का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जला कर ज़ुल्मत-ए-बातिल में हक़ की मिशअलें यारो
ज़माने को बनाया है हक़ीक़त-आश्ना मैं ने
दिवाकर राही
ग़ज़ल
पा-ब-जौलाँ अपने शानों पर लिए अपनी सलीब
मैं सफ़ीर-ए-हक़ हूँ लेकिन नर्ग़ा-ए-बातिल में हूँ