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ग़ज़ल
हम ख़ाक के ज़र्रों में हैं 'अख़्तर' भी, गुहर भी
तुम बाम-ए-फ़लक से, कभी उतरो तो पता हो
हरी चंद अख़्तर
ग़ज़ल
हम ख़ाक के ज़र्रों में हैं 'अख़्तर' भी गुहर भी
तुम बाम-ए-फ़लक से कभी उतरो तो पता हो
हरी चंद अख़्तर
ग़ज़ल
इस झड़ी सेती कहीं गिर न पड़े बाम-ए-फ़लक
इस तरह रोते हैं तुझ बिन दर-ओ-दीवार कि बस
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
ग़ज़ल
मैं इंसाँ हूँ मिरी फ़ितरत ज़मीनी है मियाँ-'नजमी'
बहुत दिन तक सर-ए-बाम-ए-फ़लक मैं रह नहीं सकता
हनीफ़ नज्मी
ग़ज़ल
कमाल-ए-शौक़-ए-नज़्ज़ारा में उर्यां होता जाता है
सर-ए-बाम-ए-फ़लक वो माहताब आहिस्ता आहिस्ता
कामरान नदीम
ग़ज़ल
हमारे आह-ए-तीर-ए-बे-कमाँ ने ख़ाना-ए-दिल से
ये रुख़ फेरा कि ता-बाम-ए-फ़लक बाँधा सुतूना है