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ग़ज़ल
दिन-ब-दिन बढ़ती गईं उस हुस्न की रानाइयाँ
पहले गुल फिर गुल-बदन फिर गुल-बदामाँ हो गए
तस्लीम फ़ाज़ली
ग़ज़ल
रक़ीबाँ की न कुछ तक़्सीर साबित है न ख़ूबाँ की
मुझे नाहक़ सताता है ये इश्क़-ए-बद-गुमाँ अपना
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
हम को तो एक तुझ से दो आलम में है ग़रज़
सब बद-गुमाँ हुआ करें तू बद-गुमाँ न हो
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
राह-ए-ग़म में हम से वो यूँ कशाँ कशाँ चले
जैसे बच के 'इश्क़ से हुस्न-ए-बद-गुमाँ चले
फ़ना निज़ामी कानपुरी
ग़ज़ल
नश्शा-ए-मय का गुमाँ करने लगा वो बद-गुमाँ
देख कर सुर्ख़ी हमारे दीदा-ए-ख़ूँ-बार की
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
बद-गुमाँ मुझ से न ऐ फ़स्ल-ए-बहाराँ होना
मेरी आदत है ख़िज़ाँ में भी गुल-अफ़शाँ होना