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ग़ज़ल
जो बद-क़िस्मत तिरे ग़म की मसर्रत से हैं ना-वाक़िफ़
वो क्या जानें किसे कहते हैं दिल का शादमाँ होना
अलीम अख़्तर मुज़फ़्फ़र नगरी
ग़ज़ल
इल्म के दरिया से निकले ग़ोता-ज़न गौहर-ब-दस्त
वाए महरूमी ख़ज़फ़ चैन लब साहिल हूँ मैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
किसी बदमस्त को राज़-आश्ना सब का समझते हैं
निगाह-ए-यार तुझ को क्या बताएँ क्या समझते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
जिसे देखो वही बदमस्त ही मग़रूर है हमदम
कोई बंदा नहीं दुनिया में किस किस को ख़ुदा समझो
अख़्तर अंसारी अकबराबादी
ग़ज़ल
उस चश्म में है सुरमे का दुम्बाला पुर-आशोब
क्यूँ हाथ में बदमस्त के बंदूक़ भरी दी
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
मैं ये जानता था मिरा हुनर है शिकस्त-ओ-रेख़्त से मो'तबर
जहाँ लोग संग-ब-दस्त थे वहीं मेरी शीशागरी रही
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
मुझे चाहिए वही साक़िया जो बरस चले जो छलक चले
तिरे हुस्न-ए-शीशा-ब-दस्त से तिरी चश्म-ए-बादा-ब-जाम से
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
कोई बदमस्त को देता है साक़ी भर के पैमाना
तिरा क्या जाएगा मुझ पर अबस इल्ज़ाम आएगा
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
तेरी जफ़ा न हो तो है सब दुश्मनों से अम्न
बदमस्त ग़ैर महव दिल और बख़्त ख़्वाब में