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ग़ज़ल
एक परी की ज़ुल्फ़ों में यूँ फँसा हुआ है चाँद
हम को लगता है बादल में छुपा हुआ है चाँद
बदीउज़्ज़माँ ख़ावर
ग़ज़ल
आड़ी सीधी पड़ती हैं नज़रें तुम्हीं पर आज तो
मजमा-ए-तार-ए-नज़र क्या बद्धियाँ हो जाएगा
आग़ा शाएर क़ज़लबाश
ग़ज़ल
अब की बार तो राखी पर भी भी दे न सकी कुछ भय्या को
अब उस के सूने माथे पर सिर्फ़ है रोली बाबू-जी
कुंवर बेचैन
ग़ज़ल
शैख़-साहिब के तलव्वुन का फ़ुसूँ है ये भी
मस्जिदों में कभी इक मिट्टी का बधना न मिला