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ग़ज़ल
बरा-ए-हल्ल-ए-मुश्किल हूँ ज़ि-पा उफ़्तादा-ए-हसरत
बँधा है उक़्दा-ए-ख़ातिर से पैमाँ ख़ाकसारी का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हो बरा-ए-शाम-ए-हिज्राँ लब-ए-नाज़ से फ़रोज़ाँ
कोई एक शम्-ए-पैमाँ कोई इक चराग़-ए-व'अदा
सुरूर बाराबंकवी
ग़ज़ल
सदाएँ देती हुई ख़लाएँ कहीं ज़मीनों तक आ न जाएँ
ये ख़्वाब-कारी-ए-पुर-तकल्लुफ़ बरा-ए-ता'बीर कर रहे हैं
आक़िब साबिर
ग़ज़ल
रू-ब-रू उन के कहाँ थी फ़ुर्सत-ए-इज़हार-ए-ग़म
लब को इक जुम्बिश बराए नाम हो कर रह गई
गणेश बिहारी तर्ज़
ग़ज़ल
बराए-अक़्द-ख़्वानी क़ाज़ियों में फ़र्क़ है लेकिन
कराची और दिल्ली के छुवारे एक जैसे हैं
खालिद इरफ़ान
ग़ज़ल
भले तो लगते हैं इंकार-ए-बोसा पर भी ये होंट
कभी तो ये कहो ''ये लब बराए बोसा'' है