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ग़ज़ल
किसी का वादा-ए-दीदार तो ऐ 'दाग़' बर-हक़ है
मगर ये देखिए दिल-शाद उस दिन हम भी होते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
रोज़ इक ताज़ा क़सीदा नई तश्बीब के साथ
रिज़्क़ बर-हक़ है ये ख़िदमत नहीं होगी हम से
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
ऐसा नज़र आता है जैसे ये शय मुझे पागल कर देगी
थोड़ी सी तवज्जोह बर-हक़ है बोहतात की निय्यत ठीक नहीं
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
दिन को रात कहें सो बर-हक़ सुब्ह को शाम कहें सो ख़ूब
आप की बात का कहना ही क्या आप हुए फ़रज़ाने लोग
ऐतबार साजिद
ग़ज़ल
जादू बर-हक़ है तो काफ़िर है अयाँ रा-चे-बयाँ
तेरा मारा हुआ ऐ चश्म-ए-फ़ुसूँ-गर मैं हूँ
आग़ा अकबराबादी
ग़ज़ल
और तो सब दुख बट जाते हैं दिल के दर्द को कौन बटाए
दुनिया के ग़म बर-हक़ लेकिन अपना भी ग़म खाना होगा
शानुल हक़ हक़्क़ी
ग़ज़ल
बग़ावत क्यूँ नहीं करते ख़ुदा-वन्दान-ए-बातिल से
ख़ुदा बर-हक़ है इस हक़ को अगर तस्लीम करते हो