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ग़ज़ल
उम्र जल्वों में बसर हो ये ज़रूरी तो नहीं
हर शब-ए-ग़म की सहर हो ये ज़रूरी तो नहीं
ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी
ग़ज़ल
सहर-ए-दम किर्चियाँ टूटे हुए ख़्वाबों की मिलती हैं
तो बिस्तर झाड़ कर चादर हटा कर देख लेता हूँ
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
हम ने भी सो कर देखा है नए पुराने शहरों में
जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है