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ग़ज़ल
वो तिरा शहर तिरे शहर का हर रंग जुदा याद आया
आँख बंद होते ही इक मंज़र-ए-तमसील-नुमा याद आया
राबिया बरनी
ग़ज़ल
मैं अंजान था जिन से ऐसे जज़्बों की पहचान हुई
'नूर' बना जो क़ौस-ए-क़ुज़ह तो रंगों की पहचान हुई
माधो नूर
ग़ज़ल
लब-ए-ल'अलीं से पीने में मुझे क्या आर है हमदम
सिसकती चीख़ती इस नौ-ए-इंसानी को क्या कहिए
हसरत सहरवर्दी
ग़ज़ल
नौ-ए-इंसाँ को मिले जिन से मय-ए-उल्फ़त के जाम
अब कहाँ ऐ साक़ी-ए-रा'ना वो मय-ख़ाने गए
साबिर अबुहरी
ग़ज़ल
हलाकत-ख़ेज़ ईजादों पे दुनिया फ़ख़्र करती है
कहाँ हैं इर्तिक़ा-ए-नौ-ए-इंसाँ देखने वाले