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ग़ज़ल
ये कुछ बहरूप-पन देखो कि बन कर शक्ल दाने की
बिखरना सब्ज़ होना लहलहाना फिर सिमट जाना
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
बनते बनते ढह जाती है दिल की हर तामीर
ख़्वाहिश के बहरूप में शायद क़िस्मत रहती है
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल
चला जाता तो हूँ मैं बहरूप बन कर उन की महफ़िल में
कहूँगा क्या रसाई गर कहीं मुँह देख कर होगी