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ग़ज़ल
ज़िंदगी में आ गया जब कोई वक़्त-ए-इम्तिहाँ
उस ने देखा है 'जिगर' बे-इख़्तियाराना मुझे
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
झुकी जाती है क्यों अपनी जबीं बे-इख़्तियाराना
अगर काबा नहीं है फिर तुम्हारा संग-ए-दर क्या है
नसीर अहमद अंसारी
ग़ज़ल
बे-बदल बे-इख़्तियाराँ किया मुझे सर चूर शीशा
मुझ को फिर दे कर दवा कर तू दवा को दर्द साक़ी
अबान आसिफ़ कचकर
ग़ज़ल
ऐ जवानाँ नौ-बहाराँ में क़दह-नोशी करो
गुल-बदन साक़ी सेती हर शब हम-आग़ोशी करो
उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला
ग़ज़ल
कुफ़्र भी रुख़्सत है ईमाँ राएगाँ करने के बाद
करते हैं ज़िक्र-ए-ख़ुदा ज़िक्र-ए-बुताँ करने के बाद