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ग़ज़ल
जैसे जैसे शाम ये बे-नूर होती जा रही है
ये तबी'अत बिन पिए मख़मूर होती जा रही है
असद बिजनौरी अलीग
ग़ज़ल
चाहे बे-नूर हों आँखों से भी ख़ुश होते हैं
हम तो बू-जहल के फ़तवों से भी ख़ुश होते हैं
नोमान शौक़
ग़ज़ल
ग़ैरत-ए-रुख़ से हुआ है तिरे बे-नूर चराग़
तू जो हो पास तो क्यूँकर न करूँ दूर चराग़
राजा गिरधारी प्रसाद बाक़ी
ग़ज़ल
वो मंज़र-ए-बे-नूर था ऐ जान-ए-जाँ ये ख़्वाब है
वो जादा-ए-बे-मेहर था इस राह में महताब है
मुईद रशीदी
ग़ज़ल
अंजाम-ए-गुल्सिताँ पर 'माहिर' मैं हँस रहा हूँ
जो गुल खिला चमन में बे-नूर हो के उट्ठा