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ग़ज़ल
मोहब्बत दर-हक़ीक़त 'मौज' बे-पायाँ समुंदर है
जिसे क़तरा समझता था वो तूफ़ाँ होता जाता है
राजेन्द्र बहादुर माैज
ग़ज़ल
हुस्न ओ 'इश्क़ दोनों थे बे-कराँ ओ बे-पायाँ
दिल वहाँ भी कुछ लम्हे जाने कब गुज़ार आया