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ग़ज़ल
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
यही फ़ितरत अपनी जमालियात के राज़ आँख पे खोलती
अगर आदमी कभी मंज़रों के तग़य्युरात में घूमता
शाहिद माकुली
ग़ज़ल
ये तअय्युनात-ए-निज़ाम थे फ़क़त एक पर्दा-ए-मासिवा
ख़बर उस की जब से हुई मुझे कोई इस जहाँ की ख़बर नहीं