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ग़ज़ल
एक दिन ज़ुल्फ़ के मुँह पर न चढ़ी ये काफ़िर
याद-ए-काकुल को फ़क़त शेवा-ए-जासूसी है
अशरफ़ अली फ़ुग़ाँ
ग़ज़ल
समाता नईं इज़ार अपने में अबतर देख रंग उस का
करे किम-ख़्वाब सो जाने की यूँ पाते हैं जासूसी
नाजी शाकिर
ग़ज़ल
मुँह से बताओ या न बताओ तुम हम को दिल की बातें
जान-ए-मन ये नैन तुम्हारे, ये जासूस हमारे हैं
अजमल सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
सोचा है मैं दर्द छुपा लूँगी अपने आसानी से
सीने में जासूस छुपा है ये क्यूँ भूल रही हूँ मैं