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ग़ज़ल
उस के ही बाज़ुओं में और उस को ही सोचते रहे
जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
निस्बत-ए-'इल्म है बहुत हाकिम-ए-वक़्त को अज़ीज़
उस ने तो कार-ए-जहल भी बे-उलमा नहीं किया
जौन एलिया
ग़ज़ल
मैं किस हवा में उड़ूँ किस फ़ज़ा में लहराऊँ
दुखों के जाल हर इक सू बिछा गया इक शख़्स
उबैदुल्लाह अलीम
ग़ज़ल
रूप को धोका समझो नज़र का या फिर माया-जाल कहो
प्रीत को दिल का रोग समझ लो या जी का जंजाल कहो