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ग़ज़ल
मुझे कोई ऐसी ग़ज़ल सुना कि मैं रो पड़ूँ
ज़रा जय जय विन्ती के सुर लगा कि मैं रो पड़ूँ
जब्बार वासिफ़
ग़ज़ल
ख़ुदा जब्बार है हर बंदा भी मजबूर ओ ताबे है
दो आलम में नज़र आया न कोई मेहरबाँ अपना
सेहर इश्क़ाबादी
ग़ज़ल
वही मुसाफ़िर मुसाफ़िरत का मुझे क़रीना सिखा रहा था
जो अपनी छागल से अपने घोड़े को आप पानी पिला रहा था
जब्बार वासिफ़
ग़ज़ल
मिरी ग़ज़ल से ग़ज़ल की महफ़िल सजाने वाला कोई न होगा
ये बात तय है कि मेरी बरसी मनाने वाला कोई न होगा