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ग़ज़ल
कहानी का ये हिस्सा अब भी कोई ख़्वाब लगता है
तिरा सर पर बिठा लेना मिरा दस्तार हो जाना
मुनव्वर राना
ग़ज़ल
मैं ने अब तक जितने भी लोगों में ख़ूद को बाँटा है
बचपन से रखता आया हूँ तेरा हिस्सा एक तरफ़
तहज़ीब हाफ़ी
ग़ज़ल
मिरी इक ज़िंदगी के कितने हिस्से-दार हैं लेकिन
किसी की ज़िंदगी में मेरा हिस्सा क्यूँ नहीं होता
राजेश रेड्डी
ग़ज़ल
तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
जिस से मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ
अहमद कमाल परवाज़ी
ग़ज़ल
तू मिरे लम्स की तासीर से वाक़िफ़ ही नहीं
तुझ को छू लूँ तो तिरे जिस्म का हिस्सा हो जाऊँ