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ग़ज़ल
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ख़िश्त पुश्त-ए-दस्त-ए-इज्ज़ ओ क़ालिब आग़ोश-ए-विदा'अ
पुर हुआ है सैल से पैमाना किस ता'मीर का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
चश्म-ए-बंद-ए-ख़ल्क़ जुज़ तिमसाल-ए-ख़ुद-बीनी नहीं
आइना है क़ालिब-ए-ख़िश्त-ए-दर-ओ-दीवार-ए-दोस्त
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
बहुत अर्सा गुनहगारों में पैग़मबर नहीं रहते
कि संग-ओ-ख़िश्त की बस्ती में शीशागर नहीं रहते
नाज़ ख़यालवी
ग़ज़ल
हर इक ख़िश्त-ए-कुहन अफ़्साना-ए-देरीना कहती है
ज़बान-ए-हाल से टूटे खंडर फ़रियाद करते हैं
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
है नज़ाकत बस कि फ़स्ल-ए-गुल में मेमार-ए-चमन
क़ालिब-ए-गुल में ढली है ख़िश्त-ए-दीवार-ए-चमन
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
गुहर जो हैं तह-ए-दरिया तो संग-ओ-ख़िश्त भी हैं
ये देखना है मिरी दस्तरस में आता है क्या
ख़ुर्शीद तलब
ग़ज़ल
वो ख़ुश-ख़िराम जब इस राह से गुज़रता है
तो संग-ओ-ख़िश्त भी इज़्न-ए-ख़िताब माँगते हैं
अब्बास रिज़वी
ग़ज़ल
मेरे ही संग-ओ-ख़िश्त से तामीर-ए-बाम-ओ-दर
मेरे ही घर को शहर में शामिल कहा न जाए
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
नींद मस्तों को कहाँ और किधर का तकिया
ख़िश्त-ए-ख़ुम-ख़ाना है याँ अपने तो सर का तकिया
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
सरवत हुसैन
ग़ज़ल
'हसन' अब खुले आसमानों में परवाज़ करना पड़ेगी
वगरना ये ख़िश्त-ए-हवस से बने घर मुझे मार देंगे
हसन अब्बास रज़ा
ग़ज़ल
मैं हूँ वो ख़िश्त-ए-कुहन मुद्दत से इस वीराने में
बरसों मस्जिद में रहा बरसों रहा मय-ख़ाना में