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ग़ज़ल
रखते हैं रस्म-ओ-राह किसी ख़ुद-निगर से हम
लेते हैं काम वुसअ'त-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र से हम
अतीक़ अहमद अतीक़
ग़ज़ल
मुझी से क्यूँ है ख़फ़ा मेरा आईना 'मख़मूर'
इस अंधे शहर में क्या ख़ुद-निगर मैं तन्हा हूँ
मख़मूर सईदी
ग़ज़ल
अब कहाँ मेरी नज़र में दहर की रंगीनियाँ
अब तो अपने आप ही को ख़ुद-निगर पाता हूँ मैं