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ग़ज़ल
सर पटकती थीं मुसलसल माैज-हा-ए-तिश्नगी
होंट के साहिल पे ख़ेमा-ज़न था पैमाने का दुख
अरशद जमाल सारिम
ग़ज़ल
दर-ए-ख़ेमा खुला रक्खा है गुल कर के दिया हम ने
सो इज़्न-ए-आम है लो शौक़-रुख़्सत कौन रखता है