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ग़ज़ल
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
हंगामा-ए-ग़म से तंग आ कर इज़हार-ए-मसर्रत कर बैठे
मशहूर थी अपनी ज़िंदा-दिली दानिस्ता शरारत कर बैठे
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
तुझे दानिस्ता महफ़िल में जो देखा हो तो मुजरिम हूँ
नज़र आख़िर नज़र है बे-इरादा उठ गई होगी
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
शाम-ए-ग़म है तिरी यादों को सजा रक्खा है
मैं ने दानिस्ता चराग़ों को बुझा रक्खा है
मुज़फ़्फ़र रज़्मी
ग़ज़ल
करूँ नासेह मैं क्यूँकर हाए ये वा'दा न देखूँगा
नज़र पड़ जाएगी ख़ुद ही जो दानिस्ता न देखूँगा