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ग़ज़ल
देखो तो किस अदा से रुख़ पर हैं डाली ज़ुल्फ़ें
जूँ मार डसती हैं दिल दिलबर की काली ज़ुल्फ़ें
आफ़ताब शाह आलम सानी
ग़ज़ल
आए हैं 'मीर' काफ़िर हो कर ख़ुदा के घर में
पेशानी पर है क़श्क़ा ज़ुन्नार है कमर में
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
इक आलम-ए-जाँ वो होता है तख़सीस नहीं जिस में कोई
इस वक़्त हमारी बाँहों में जो आए वो दिलबर हो जाए
जमशेद मसरूर
ग़ज़ल
जहान-ए-हुस्न की रानाइयों में शौक़ का आलम
शरारत जब भी दिल करता है दिलबर मुस्कुराता है
सुहैल काकोरवी
ग़ज़ल
न गुल से काम है हम को न कुछ गुलज़ार से मतलब
ब-जाँ रखते हैं इक हमदम बदल इक यार से मतलब
मरदान सफ़ी
ग़ज़ल
यार का पाँव तो आलम का दहाँ सर होता
काशके मैं भी दर-ए-यार का पत्थर होता
राजा गिरधारी प्रसाद बाक़ी
ग़ज़ल
सरवर आलम राज़
ग़ज़ल
गुलों पर साफ़ धोका हो गया रंगीं कटोरी का
रग-ए-गुल में जो आलम था तिरी अंगिया की डोरी का
असद अली ख़ान क़लक़
ग़ज़ल
नूह नारवी
ग़ज़ल
गिला-शिकवा कहाँ रहता है दिल हम-साज़ होता है
मोहब्बत में तो हर इक जुर्म नज़र-अंदाज़ होता है
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर
ग़ज़ल
क्यों कहूँ मैं कि सितम का मैं सज़ा-वार न था
दिल दिया था तुझे किस तरह गुनहगार न था