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ग़ज़ल
हुआ जब ग़म से यूँ बे-हिस तो ग़म क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से तो ज़ानू पर धरा होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हाज़िर हैं कलीसा में कबाब ओ मय-ए-गुलगूँ
मस्जिद में धरा क्या है ब-जुज़ मौइज़ा ओ पंद
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
किताबों में धरा है क्या बहुत लिख लिख के धो डालीं
हमारे दिल पे नक़्श-ए-कल-हजर है तेरा फ़रमाना
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
ताअत नहीं है वो कि जो हो बे-हुज़ूर-ए-क़ल्ब
ऐ शैख़ क्या धरा है रुकू-ओ-सुजूद में