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ग़ज़ल
मैं जैसे एक राह-ए-सुस्त-रौ की सैर करता हूँ
मिरी रानों तले रहवार है ऐसा नहीं लगता
अरशद अब्दुल हमीद
ग़ज़ल
'नसीम' इक दिन वो आएगा कि मज़लूमों के क़दमों में
पनाहें ढूँढती होगी सितम-रानों की दाराई
मलिका नसीम
ग़ज़ल
बीख़-कुन थे जो सितम-रानों के कल तक ऐ नदीम
हो रहा है अब शुमार उन का सितम-रानों में क्यूँ
हामिदुल्लाह अफ़सर
ग़ज़ल
जाने कैसी थी 'मुजीबी' आग उस के लम्स की
जिस्म का सोना पिघल कर सब मिरी रानों में था
सिद्दीक़ मुजीबी
ग़ज़ल
पहुँची जो टुक झलक तिरे रानों की गोश तक
ख़जलत से आब हो दुर-ए-मकनूँ टपक पड़े
ज़हूरुल्लाह बदायूनी नवा
ग़ज़ल
ग़ैर की नज़रों से बच कर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़
वो तिरा चोरी-छुपे रातों को आना याद है