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ग़ज़ल
ताकि मैं जानूँ कि है उस की रसाई वाँ तलक
मुझ को देता है पयाम-ए-वादा-ए-दीदार-ए-दोस्त
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हरीम-ए-नाज़ में उस की रसाई हो तो क्यूँकर हो
कि जो आसूदा ज़ेर-ए-साया-ए-दीवार हो जाए
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
वो सर और ग़ैर के दर पर झुके तौबा मआज़-अल्लाह
कि जिस सर की रसाई तेरे संग-ए-आस्ताँ तक है
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
एक चीज़ जो अपनी रसाई से बाहर है कहीं 'ज़फ़र'
सच पूछो तो इस की हमें ज़रूरत बहुत ज़्यादा है
ज़फ़र इक़बाल
ग़ज़ल
मैं तुझ को देखने से किस लिए महरूम रहता हूँ
अता करता है जब नज़रें रसाई क्यूँ नहीं देता
मनीश शुक्ला
ग़ज़ल
पए-नज़्र-ए-करम तोहफ़ा है शर्म-ए-ना-रसाई का
ब-खूँ-ग़ल्तीदा-ए-सद-रंग दा'वा पारसाई का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
गुनह बख़्शो रसाई दो 'रसा' को अपने क़दमों तक
बुरा है या भला है जैसा है प्यारे तुम्हारा है