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ग़ज़ल
मकड़ी के जालों में कब से क़ैद हैं रौशन-दान मिरे
हाए क्या सोचेंगे घर को देख के कल मेहमान मिरे
कौसर नियाज़ी
ग़ज़ल
ढले जब तक न शब हम काढ़ कर इक शम्अ' की लौ से
तुलू-ए-सुब्ह का मंज़र न रौशन-दान में रख लें?
इक़बाल कौसर
ग़ज़ल
शब हुई फिर अंजुम-ए-रख़्शन्दा का मंज़र खुला
इस तकल्लुफ़ से कि गोया बुत-कदे का दर खुला
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वो ज़िंदा हम हैं कि हैं रू-शनास-ए-ख़ल्क़ ऐ ख़िज़्र
न तुम कि चोर बने उम्र-ए-जावेदाँ के लिए