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ग़ज़ल
ये हिर्स-ओ-हवा की मंज़िल है ऐ राह-रवो हुश्यार ज़रा
जब हाथ रुपहले बढ़ते हैं रहबर के क़दम बिक जाते हैं
शमीम करहानी
ग़ज़ल
जाने कब तड़पे और चमके सूनी रात को फिर डस जाए
मुझ को एक रुपहली नागिन बैठी मिली है घटाओं में
बशीर बद्र
ग़ज़ल
हमारे कमरे में उस की यादें नहीं हैं 'फ़ाज़िल'
कहीं किताबें कहीं रिसाले पड़े हुए हैं
फ़ाज़िल जमीली
ग़ज़ल
बात चुप रह के भी करती हैं तुम्हारी आँखें
जब भी चेहरे पे ठहरती हैं तुम्हारी आँखें
रूपा मेहता नग़मा
ग़ज़ल
चाँद उठा कर ले जाते थे दिल की रुपहली कश्ती में
पिछले पहर की सरदाबी से आँख को ताज़ा करते थे
अरसलान राठोर
ग़ज़ल
हम तुम थे पहले अजनबी ना-आश्ना इतने न थे
हम भी नहीं थे बद-गुमाँ तुम भी ख़फ़ा इतने न थे
रूपा मेहता नग़मा
ग़ज़ल
रुपहली चाँदनी उस को अमीर-ए-शहर की बख़्शिश
सुलगती धूप का सहरा मिरे हिस्से में आया है