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ग़ज़ल
हुई न साज़ मिरी उस की सोहबत इक शब हाए
इधर से इज्ज़ उधर से रुखाइयाँ ही रहीं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
ये इन दिनों जो हम से इतनी रुखाइयाँ हैं
शायद किसी ने बातें कुछ कुछ सुझाइयाँ हैं
मिर्ज़ा नईम बेग जवान
ग़ज़ल
दिन-ब-दिन बढ़ती गईं उस हुस्न की रानाइयाँ
पहले गुल फिर गुल-बदन फिर गुल-बदामाँ हो गए
तस्लीम फ़ाज़ली
ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
वही चर्चे वही क़िस्से मिली रुस्वाइयाँ हम को
उन्ही क़िस्सों से वो मशहूर हो जाए तो क्या कीजे