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ग़ज़ल
वो तप-ए-इश्क़-ए-तमन्ना है कि फिर सूरत-ए-शम्अ'
शो'ला ता-नब्ज़-ए-जिगर रेशा-दवानी माँगे
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
न आई सतवत-ए-क़ातिल भी माने मेरे नालों को
लिया दाँतों में जो तिनका हुआ रेशा नियस्ताँ का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मोहब्बत तर्ज़-ए-पैवंद-ए-निहाल-ए-दोस्ती जाने
दवीदन रेशा साँ मुफ़्त-ए-रग-ए-ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दर्द से दर-पर्दा दी मिज़्गाँ-सियाहाँ ने शिकस्त
रेज़ा रेज़ा उस्तुख़्वाँ का पोस्त में नश्तर हुआ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दार-ओ-रसन की रेशा-दवानी गर्दन-ओ-सर तक रहती है
अहल-ए-जुनूँ का पाँव रहा है गर्दन-ओ-सर से आगे भी
कलीम आजिज़
ग़ज़ल
है तन में रीशा-हा-ए-नए ख़ुश्क उस्तुख़्वाँ
क्यूँ खींचता है काँटों में ऐ ज़ोफ़-ए-तन मुझे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
आख़िर शब में सारे मोमिन रेशा रेशा भीग गए
ज़ाहिद जितने ख़ुश्क बचे हैं उन पे तू इबलीस बरस
आयाज़ रसूल नाज़की
ग़ज़ल
सारे जिस्म का रेशा रेशा सोच की क़ुव्वत पाए
फिर हर साँस का हासिल चाहे सदियों पर फैलाओ
अली अकबर अब्बास
ग़ज़ल
मैं ख़ुद को रेशा रेशा फ़िक्र-ओ-फ़न से ओढ़ लेता हूँ
ग़ज़ल के शे'र की तरकीब में रेशम बनाता हूँ
याह्या ख़ान यूसुफ़ ज़ई
ग़ज़ल
देखते ही रेशा-ख़तमी हो रहे हैं पीर जी
उस मुरीदन से भी अपना अक़्द पढ़वाएँगे क्या