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ग़ज़ल
रात आख़िर हुई और बज़्म हुई ज़ेर-ओ-ज़बर
अब न देखोगे कभी लुत्फ़-ए-शबाना हरगिज़
अल्ताफ़ हुसैन हाली
ग़ज़ल
यार की ज़ुल्फ़-ए-ज़र-अफ़शाँ मुझे याद आती है
क्या ही सीने से निकलते हैं शरर आज की रात
नसीम मैसूरी
ग़ज़ल
बात करने में जो लब उस के हुए ज़ेर-ओ-ज़बर
एक साअत में तह-ओ-बाला ज़माना हो गया
भारतेंदु हरिश्चंद्र
ग़ज़ल
इस बेहिस दुनिया के आगे किसी लहर की पेश नहीं जाती
अब बहर का बहर उछाल कोई इसे ज़ेर-ओ-ज़बर करने के लिए
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
इक ठिकाना था जहाँ बहला लिया करता था दिल
आज उस महफ़िल को भी ज़ेर-ओ-ज़बर पाता हूँ मैं